28 मई जयंती विशेष : भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दैदीप्यमान सूर्य वीर विनायक दामोदर सावरकर

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28 May Birth Anniversary Special: Veer Vinayak Damodar Savarkar, the shining sun of the Indian freedom struggle

सुरेन्द्र शर्मा
भारत का विभाजन अप्राकृतिक है,किसी देश की सीमा रेखाएँ केवल नदी पहाड़ों या संधि पत्रों से निर्धारित नहीं होती हैं,वह होती हैं उस देश के युवाओं के कर्तत्व और पौरुष से,जिस दिन भारत की आने वाली पीढ़ियां अपना कर्तत्व दिखायेंगी उस दिन भारत की सीमा रेखाएँ काबुल कांधार को लाँघकर दूर तक निकल जायेँगी–सावरकर
वीर सावरकर भारत के इतिहास के वह महापुरुष जिन्हें भुलाने की लगातार कोशिश की गई लेकिन उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है कि जितना उसे ग्रहण लगाने की कोशिश की गई हर समय सूर्य के तेज की तरह दोगुने रूप में उनका व्यक्तित्व और निखर कर राष्ट्र के सामने आया।
पुण्य भूमि भारत की वीर प्रसूता भूमि महाराष्ट्र जिसने क्षत्रपति शिवाजी और लोकमान्य तिलक जैसे तेजोमय नायकों को जन्म दिया उसी महाराष्ट्र में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दैदीप्यमान सूर्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 को नासिक के पास भगूर नामक गांव में हुआ था और उनकी मृत्यु 26 फरवरी, 1966 को बम्बई (अब मुंबई) में हुई थी। पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर एक स्वतंत्रता ,संग्राम सेनानी, राजनीतिज्ञ, वकील, समाज सुधारक और हिंदुत्व के दर्शन के सूत्रधार थे।सावरकर के पिता का नाम दामोदरपंत सावरकर और माता राधाबाई थीं। उन्होंने कम उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया था। वह अपने बड़े भाई गणेश (बाबाराव) से काफी प्रभावित थे।
वीर सावरकर जब छोटे थे, तो उन्होंने ‘मित्र मेला’ नामक एक युवा समूह का आयोजन किया। वह लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल जैसे राष्ट्रवादी राजनीतिक नेताओं से प्रेरित थे और समूह को क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल करते थे। उन्होंने पुणे के ‘फर्ग्यूसन कॉलेज’ में दाखिला लिया और स्नातक की डिग्री पूरी की।
सावरकर को उच्च शिक्षा हेतु इंग्लैंड में कानून का अध्ययन करने का प्रस्ताव मिला और छात्रवृत्ति की पेशकश की गई। उन्हें इंग्लैंड भेजने और पढ़ाई जारी रखने में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने मदद की थी। उन्होंने वहां ‘ग्रेज़ इन लॉ कॉलेज’ में दाखिला लिया और ‘इंडिया हाउस’ में निवास बनाया यह उत्तरी लंदन में एक छात्र निवास था। लंदन में वीर सावरकर ने अपने साथी भारतीय छात्रों को प्रेरित किया और आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एक संगठन ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ का गठन किया।
वीर सावरकर ने ‘1857 के “स्वातंत्र्य समर”की तर्ज पर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध के बारे में सोचा। उन्होंने “द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस” नामक पुस्तक लिखी, जिसने कई भारतीयों को आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, इस किताब पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसने कई देशों में लोकप्रियता हासिल की। इतना ही नहीं, उन्होंने हाथ से बनाए जाने वाले बम और गुरिल्ला युद्ध के प्रपत्र भी बनाए और दोस्तों में बांटे। उन्होंने अपने मित्र मदन लाल ढींगरा को भी कानूनी सुरक्षा प्रदान की, जो सर विलियम हट कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश भारतीय सेना अधिकारी की हत्या के मामले में आरोपी थे।

सावरकर को 50 साल कैद की सजा कैसे सुनाई गई ?
इस बीच, भारत में वीर सावरकर के बड़े भाई ने ‘इंडियन काउंसिल एक्ट 1909’ जिसे मिंटो-मॉर्ले रिफॉर्म के नाम से भी जाना जाता है, के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया। इसके अलावा विरोध के साथ ब्रिटिश पुलिस ने दावा किया कि वीर सावरकर ने अपराध की साजिश रची थी और उनके खिलाफ वारंट जारी किया था।
गिरफ्तारी से बचने के लिए वीर सावरकर पेरिस चले गए और वहां उन्होंने भीकाजी कामा के आवास पर शरण ली। 13 मार्च, 1910 को उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, लेकिन फ्रांसीसी सरकार तब बुरा मान गयी, जब ब्रिटिश अधिकारियों ने पेरिस में वीर सावरकर को गिरफ्तार करने के लिए उचित कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की।
अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता का स्थायी न्यायालय ब्रिटिश अधिकारियों और फ्रांसीसी सरकार के बीच विवाद को संभाल रहा था और 1911 में फैसला सुनाया। आपको बता दें कि वीर सावरकर के खिलाफ फैसला आया और उन्हें 50 साल की कैद की सजा सुनाई गई और वापस बंबई भेज दिया गया। बाद में उन्हें 4 जुलाई 1911 को अंडमान और निकोबार द्वीप ले जाया गया।अंडमान में उन्हें काला पानी के नाम से मशहूर ‘सेल्यूलर जेल’ में बंद कर दिया गया। जेल में उन्हें बहुत यातनाएं दी गईं। लेकिन, उनकी राष्ट्रीय स्वतंत्रता की भावना जारी रही और उन्होंने वहां अपने साथी कैदियों को पढ़ाना-लिखाना सिखाना शुरू कर दिया। उन्होंने जेल में एक बुनियादी पुस्तकालय शुरू करने के लिए सरकार से अनुमति भी ली।अपने जेल समय के दौरान उन्होंने एक वैचारिक पुस्तिका लिखी, जिसे “हिंदुत्व “के नाम से जाना जाता है: हिंदू कौन है?’ और इसे सावरकर के समर्थकों ने प्रकाशित किया। पैम्फलेट में उन्होंने हिंदू को ‘भारतवर्ष’ (भारत) का देशभक्त और गौरवान्वित निवासी बताया और इससे कई हिंदू प्रभावित हुए। उन्होंने जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म और हिंदू धर्म जैसे कई धर्मों को एक ही बताया। उनके अनुसार, ये सभी धर्म ‘अखंड भारत’ (संयुक्त भारत या बृहत् भारत) के निर्माण का समर्थन कर सकते हैं।
उन्हें हमेशा हिंदू होने पर गर्व था और उन्होंने इसे एक राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान बताया। 6 जनवरी, 1924 को सावरकर को जेल से रिहा कर दिया गया और उन्होंने ‘रत्नागिरी हिंदू सभा’ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संगठन का उद्देश्य हिंदुओं की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करना था।

29 दिसम्बर 1908 लंदन में गुरु गोविंद सिंहजी का जन्मोत्सव समारोह का आयोजन
जो लोग काम-धंधे या अन्य किसी कारण से विदेश में बस जाते हैं, वे लम्बा समय बीतने पर प्रायः अपनी भाषा-बोली, रीति-रिवाज खान-पान और धर्म-कर्म आदि भूल जाते हैं। गुलामी के काल में इंग्लैंड निवासी अधिकांश भारतीय और हिन्दुओं की यही हालत थी। ऐसे माहौल में जुलाई 1906 में वीर विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए लंदन पहुंचे। वे वहां स्वाधीनता सेनानी पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। वहां रहकर उन्होंने जहां स्वाधीनता संग्राम में कई तरह से योगदान किया, वहां देश और धर्म के लिए बलिदान होने वाले वीरों की जयंती और पुण्य-तिथि आदि मनाकर भारत से गये हिन्दुओं में भी जागृति लाने का प्रयास किया। इसी क्रम में 29 दिसम्बर, 1908 को लंदन के प्रसिद्ध ‘कैक्स्टन हाॅल’ में खालसा पंथ के संस्थापक श्री गुरु गोविंद सिंहजी का जन्मोत्सव मनाया गया। खराब मौसम के बावजूद इसमें हिन्दुओं और सिखों के अलावा कई अंग्रेज, मुसलमान और पारसी भी शामिल हुए। सभा स्थल पर गुलाबी रंग के एक भव्य झंडे पर ‘देग तेग फतह’ लिखा था। गुलाबी पृष्ठभूमि पर ये शब्द बहुत अच्छे लग रहे थे।

एक बैनर पर Honour to the secred memory of Shree Guru Govind Singh के नीचे Prophet, Poet and warrior लिखा था। सभागार धूपबत्ती और ताजे पुष्पों की सुगंध से महक रहा था। श्वेत राष्ट्रीय झंडियों से वातावरण में पवित्रता व्याप्त हो गयी। समारोह की अध्यक्षता स्वाधीनता सेनानी श्री विपिनचंद्र पाल ने की। उनके मंचासीन होने पर ‘राष्ट्रगीत’ हुआ। फिर ‘बंगाली आमार देश’ तथा ‘मराठी प्रियकर हिन्दुस्थान’ गीत गाये गये। इसी क्रम में दो सिख युवाओं ने धार्मिक प्रार्थना बोली। पहले वक्ता प्रोफेसर गोकुलचंद नारंग एम.ए. (दयानंद काॅलेज) ने अपने आवेशयुक्त भाषण में कहा कि गुरु गोविंद सिंहजी का स्मरण हिन्दुओं के मन में अभिमान, प्रेम, आत्मनिष्ठा और पूज्यता का भाव भर देता है। ईसाई लोगों के मन में ईसा मसीह का नाम लेने से जो मनोभावना उत्पन्न होती है, केवल उसी से इसकी तुलना हो सकती है। दूसरे वक्ता स्वाधीनता सेनानी लाला लाजपतराय थे। उन्होंने कहा कि गुरु गोविंद सिंहजी हिन्दुस्थान की महान विभूति थे। पंजाब में तो वे अनन्य थे ही। उनके चार छोटे बच्चे शत्रु के रोष की बलि चढ़ गये। गुरुजी वास्तव में सिंह थे। अध्यक्ष विपिन चंद्र पाल ने गुरुजी को याद करते हुए कि उन्होंने मानव की दैवी शक्ति का विकास करने का प्रयास किया। आज भारत में जिसे नयी जागृति या नया पक्ष आदि कहा जा रहा है, वह कुछ नया नहीं है।
विनायक दामोदर सावरकर इस समारोह के वक्ताओं में शामिल नहीं थे। यद्यपि इसके आयोजन में उनकी भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण थी; पर श्रोता उन्हें सुनना चाहते थे। अतः विपिन बाबू ने उन्हें भी बोलने को कहा। सावरकर ने ‘देग तेग फतह’ की व्याख्या करते हुए कहा कि ये तीन शब्द तीन पंखुडि़यों वाला फूल है, जिससे गुरुजी के सम्पूर्ण जीवन और सिख धर्म को समझा जा सकता है। इसका उच्चारण गुरु गोविंद सिंह जी ने ही किया था। देग का अर्थ तत्व, तेग का तलवार और फतह का अर्थ जीत है। तलवार के बिना तत्व लंगड़ा रहता है। इसीलिए गुरुजी ने तलवार उठायी और अंततः हिन्दू पक्ष की जीत हुई।
समारोह के अंत में सिख परम्परा के अनुसार ‘कढ़ाह प्रसाद’ बांटा गया। गुरु गोविंद सिंह के जयकारे और ‘वंदे मातरम्’ के उद्घोष के साथ सभा विसर्जित हुई। प्रायः लंदन का मीडिया भारतीय और विशेषकर हिन्दुओं के समारोह को महत्व नहीं देता था; पर इसका समाचार टाइम्स, डेली टेलीग्राफ, मिरर, डेली एक्सप्रेस जैसे बड़े पत्रों ने दिया। डेली मिरर ने तो एक चित्र भी प्रकाशित किया। इससे यह कार्यक्रम पूरे नगर में चर्चा का विषय बन गया।

24 अक्तूबर 1909 लंदन में विजयादशमी पर्व

एक समय दुनिया में अंग्रेजों की तूती बोलती थी। ऐसे में इंग्लैंड में बसे भारतीय बहुत दबकर रहते थे। राजधानी लंदन में तो माहौल बहुत ही खराब था। वहां के हिन्दू केवल नाम के हिन्दू रह गये थे। वे अपने धार्मिक पर्व मनाने की बजाय चर्च जाते थे और क्रिसमस के कार्ड एक-दूसरे को देते थे। पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के प्रयास से लोग स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा की बजाय गर्व का अनुभव करने लगे। इसके साथ ही वहां हिन्दू पर्व भी मनाये जाने लगे। 24 अक्तूबर, 1909 को लंदन के ‘क्वींस हाॅल’ में विजयादशमी पर्व मनाया गया। इसके लिए ‘श्रीरामो विजयते’ नामक एक सुनहरा निमंत्रण पत्र बांटा गया। समारोह में भोज का भी आयोजन था, जिसका शुल्क तीन रुपये रखा गया था। समारोह में सौ से भी अधिक भारतीय पुरुष और महिलाएं शामिल हुईं। इनमें लंदन के बड़े-बड़े व्यापारी, प्रोफेसर, डाॅक्टर और विद्यार्थी भी थे। समारोह की अध्यक्षता बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने की। केवल भारतीयों के लिए होने के कारण इसमें बाहर के लोग शामिल नहीं किये गये थे। समारोह के लिए ‘क्वींस हाॅल’ को बहुत अच्छा सजाया गया था। भव्य राष्ट्रीय निशान और उस पर मोटे अक्षरों में ‘वन्दे मातरम्’ लिखा था। सबसे पहले राष्ट्रीय गीत और फिर गांधीजी का भाषण हुआ। उन्होंने कहा कि आज यहां थाली लगाना, पानी देना, रसोई बनाना जैसे कार्य डाॅक्टर, प्रोफेसर आदि ने स्वयंसेवक बनकर किये। यह लोकसेवा का अच्छा उदाहरण है। लंदन में ऐसा समारोह होगा, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। यह हिन्दू समारोह है; पर इसमें मुसलमान और पारसी भी आये हैं। यह अच्छी बात है। श्रीराम के सद्गुण यदि अपने राष्ट्र में फिर उत्पन्न हो जाएं, तो देश की उन्नति होने में देर नहीं लगेगी। इसके बाद हिन्दुस्थान के नाम का जयघोष किया गया। दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी के साथ आये अली अजीज ने कहा कि हिन्दुस्थान हिन्दू और मुसलमान दोनों की भूमि है। उसकी उन्नति हो तथा वह शक्तिशाली बने। इसके बाद वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय बोले। अब गांधीजी ने सावरकर को बोलने का आग्रह करते हुए कहा कि उनके और मेरे विचारों में कुछ भिन्नता है। फिर भी उनके साथ बैठने का मुझे अभिमान है। उनके स्वार्थ त्याग और और देशभक्ति के मधुर फल अपने देश को चिरकाल तक मिलें, यह मेरी इच्छा है।
सावरकर के खड़े होते ही श्रोताओं ने पांच मिनट तक ताली बजाकर उनका सम्मान किया। सावरकर ने इसके लिए धन्यवाद देते हुए श्रीराम को पुष्पांजलि अर्पित की। अपने पौने घंटे के भाषण में उन्होंने राजनीतिक विषयों को स्पर्श नहीं किया। वह भाषण पूरी तरह श्रीराम के जीवन पर ही केन्द्रित रहा। उन्होंने कहा कि जब श्रीराम अपने पिता के आदेश पर वन गये, तो वह कार्य ‘महत्’ था। जब उन्होंने अत्याचारी रावण को मारा, तो वह कार्य ‘महत्तर’ था; पर जब उन्होंने ‘‘आराधनाय लोकस्य मंुचतो नास्ति मे व्यथा’’ कहकर भगवती सीता को उपवन में भेज दिया, तो वह कार्य ‘महत्तम’ था। श्रीराम ने व्यक्ति और पारिवारिक कर्तव्यों को अपने लोकनायक रूपी राजा के कर्तव्यों पर बलिदान कर दिया। इसलिए उनकी मूर्ति हर हिन्दू को अपने मन में धारण करनी चाहिए। इससे ही भारत की उन्नति होगी। उन्होंने कहा कि हिन्दू समाज हिन्दुस्थान का हृदय है। फिर भी जैसे इन्द्रधनुष के कई रंगों से उसकी शोभा बढ़ती है, वैसे ही मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि विश्व के उत्तमांश मिलाकर हिन्दुस्थान भी काल के आकाश में अधिक ही खिलेगा। सभा के अध्यक्ष गांधीजी ने कहा कि विनायक दामोदर सावरकर के भाषण पर सब लोग ध्यान दें और इनके निवेदन को आत्मसात करें। राष्ट्रगीत के गायन से यह विजयादशमी समारोह सम्पन्न हुआ।

वीर सावरकर जी की ऐतिहासिक छलांग 8 जुलाई 1910
अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश ही नहीं, तो विदेश में भी क्रांतिकारियों को तैयार किया। इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। अतः ब्रिटिश शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा, जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके।पर सावरकर बहुत जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था। 8 जुलाई, 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी। अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया। शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था। सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी। बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़ चुका था। सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं। उसने शोर मचाकर अपने साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं।
कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते हुए उस बंदरगाह पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां राजनीतिक शरण मांगी। अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था। उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब तक ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा। सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी फ्रांसीसी पुलिस को दी। बिना अनुमति किसी दूसरे देश के नागरिकों का फ्रांस की धरती पर उतरना भी अपराध था; पर दुर्भाग्य से फ्रांस की पुलिस दबाव में आ गयी। ब्रिटिश पुलिस वालों ने उन्हें कुछ घूस भी खिला दी। अतः उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष कालेपानी की सजा दी गयी।
अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस छलांग का ऐतिहासिक महत्व है। इससे भारत की गुलामी वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी। फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा। हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी; पर सावरकर तो तब तक मुंबई पहुंच चुके थे, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता था।

सावरकर का व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे शब्दों में समेटना कठिन है उनके व्यक्तित्व का वर्णन करना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थीं हम क्यों शोक करें,क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई थी। वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यंबकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ। सावरकर वह पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने 7 अक्टूबर 1905 में विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद महात्मा गाँधी जी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया…!
सावरकर ही वह पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुर्माना किया… इसके विरोध में हड़ताल हुई… स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा…!
वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफ़ादार होने की शपथ नहीं ली… इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया…!
वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया इस’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था।1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी…! भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी… पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी…!
सावरकर वह पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नहीं मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया…!
वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले – “चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया”…!
वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सज़ा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आज़ादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला…! वीर सावरकर काला पानी की काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कवितायें लिखीं और 6000 पंक्तियाँ याद रखी..!
वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आज़ादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा…!
वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि :
‘आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका,
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः।

अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभूमि है, जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भूमि है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है..!
वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया… देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था…।
वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था…।
वीर सावरकर वह पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था…।
वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके
चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया…।
वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था।
वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया… पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर सभी मे लोकप्रिय और युवाओं के आदर्श बन रहे है।।
वीर सावरकर के कार्य का एक बड़ा क्षेत्र सामाजिक सामंजस्य क़ायम करना व जाति भेद को समाप्त करने का था। वामपंथी इतिहासकारों ने उनके इस पक्ष पर कभी बात नहीं की।।
जिन्हें सावरकर जी के इन कार्यों का प्रमाण चाहिए वह नासिक में पतित पावन मंदिर के दर्शन कर सकते हैं।।
“हे मातृभूमी!
तेरे लिए मरना ही जीवन है,
तुझ बिन जीवन भी मरण है,
संसार का हर सुख तेरी सेवा में
अर्पण है॥”

अपनी अभिजात देशभक्ति से वीर सावरकर बस एक नाम भर नहीं रहा वह राष्ट्र्भक्ति का एक मंत्र व एक विचार बन गया है। भारत की अखंडता के प्रबल पक्षधर, अद्वितीय स्वतंत्रता सेनानी स्वातंत्र्यवीर सावरकर का महामंत्र था एक राष्ट्र-एक संस्कृति भाव। भारत की स्वतंत्रता के लिए उनका संघर्ष व राष्ट्रप्रेम हर भारतवासी के लिए प्रेरणास्त्रोत है।
1970 में भारत सरकार द्वारा सावरकर जी की स्मृति में डाक टिकट जारी किया तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने निजी खाते से 11000 रुपए सावरकर ट्रस्ट में दान कर दिए । 20 मई 1980 को पंडित बाखले सचिव स्वातंत्र्य वीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के नाम संबोधित पत्र में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लिखा है”मुझे आपका पत्र 8 मई 1980 को मिला था वीर सावरकर का ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए काफी अहम है।में आपको देश के महान सपूत (remarkable son of India) के शताब्दी समारोह के आयोजन की बधाई देती हूं।।
श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1983 में फिल्म डिवीजन को आदेश दिया कि वह “महान क्रांतिकारी” के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाएं।
वीर सावरकर के बारे में बोलते हुये पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा था
“सावरकर माने तेज, सावरकर माने त्याग,
सावरकर माने तप, सावरकर माने तत्व,
सावरकर माने तर्क, सावरकर माने तारुण्य,
सावरकर माने तीर, सावरकर माने तलवार,
सावरकार माने तिलमिलाहट…
‘सागरा प्राण तड़मड़ला… तड़मड़ाती हुई आत्मा’
सावरकर माने तितीक्षा,
सावरकर माने तीखापन, सावरकर माने तिखट।।”

आज कुछ लोग कहते हैं में सावरकर नहीं हूं ,सच में कोई दूसरा सावरकर ही भी नहीं सकता।
मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने वाले इस महापुरुष के साथ अंग्रेजों ने तो अत्याचार किए ही स्वतंत्रता के पश्चात भी उन्हें वह मान सम्मान न मिल सका जिसके वह हकदार थे।
आने वाले समय में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करना यही वीर पुरुष के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


सुरेन्द्र शर्मा
प्रदेश कार्यसमिति सदस्य भाजपा मध्यप्रदेश