प्रज्ञा देश की तीसरी गरीब सांसद
सत्ता के गलियारे से..रवि अवस्थी
कहते हैं,व्यक्ति की असल पहचान उसकी प्रभुता के दौरान ही होती है। इन बानगियों से इसे समझा जा सकता है। पार्टी में प्रवक्ता रहने तक विनम्रता की प्रतिमूर्ति रहे रहे नरेंद्र शिवाजी पटेल का असली चेहरा उनके राज्य मंत्री बनते ही सामने आ गया।
कमोबेश कुछ ऐसा ही प्रदर्शन एक अन्य राज्य मंत्री लखन पटेल का भी सामने आया। वह अपने साले के बेटे को डपट लगाने की जगह पीडि़त पर ही उन्हें बदनाम करने का आरोप जड़ रहे हैं। इंदौर के एक विधायक के बेटे की रंगदारी का वीडियो भी सोशल मीडिया में सुर्खी बटोर रहा है।
भोपाल में ही एक राज्य मंत्री का गेट आम जनता के लिए सुबह सवा दस बजे से पहले नहीं खुलता। दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी हैं,जिन्होंने अपने अतिरिक्त आवास को ही मामा का घर बना दिया। इससे पहले मुख्यमंत्री रहते गरीब जनता के लिए मुख्यमंत्री निवास के द्वार खोल दिए थे। देर-सबेर ही सही,साख को बट्टा लगाने वालों से भी दूरी बनाकर रखी।
प्रज्ञा देश की तीसरी गरीब सांसद
भोपाल की मौजूदा सांसद साध्वी प्रज्ञा ने पिछले चुनाव के दौरान अपने हलफनामे में भगवान राम के चित्र वाली चांदी लेपित एक ईंट का जिक्र किया था।तब यह कहा गया था कि यह ईंट अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए है।
बहरहाल,अयोध्या में रामलला तो विराजमान हो गए लेकिन प्रज्ञा को दूसरी बार सांसद बनने का मौका नहीं मिला। इधर,एडीआर की नई रिपोर्ट बताती है कि प्रज्ञा देश की सबसे गरीब तीन सांसदों में एक हैं। उनकी हालिया घोषित संपत्ति सिर्फ 4.4लाख रुपए बताई गई है।
इसी सूची में पहला नाम आंध्र में अराकू सीट से सांसद गोड्डेती माधवी(1.4लाख रु.)का व दूसरा उड़ीसा के कोएनझार से बीजेडी सांसद चंद्राणी मुर्मू (3.4 लाख रुपए) का है। इधर,धन की कमी का हवाला देते हुए देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने चुनाव लडऩे से इंकार कर दिया।पद की शुचिता के यह चारों मामले महिलाओं से जुड़े हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद में 33 फीसद महिला आरक्षण लागू होने पर इसमें और इजाफा होगा।
दल बदला,अब दिल बदलेंगे
अपना दिल तो वे दल बदलने से पहले बदल चुके हैं।अब दूसरों के दिल बदलने की जिम्मेदारी है।यहां बात हो रही है,बीते ढाई-तीन महीनों में कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम चुके दिग्गजों की।जिनके अपने सैकड़ों समर्थक हैं तो व्यक्तिगत जनाधार भी। कल तक ये कांग्रेस को मजबूत बनाने का नारा लगाते व लगवाते थे।अब बदली हुई भूमिका में हैं। बीजेपी में हैं तो सक्रियता भी दिखानी होगी और वोट भी डायवर्ट कराना होगा। इसी आधार पर पार्टी में उनका आगे का सियासी भविष्य व भूमिका तय होगी। वर्ना तो पार्टी में 15 साल वाला फॉर्मूला पहले से ही कई पर लागू है।
एक ठौर तो मिला
बड़ी मछली,छोटी मछली वाली कहावत राजनीति में भी लागू होती है। विशेषकर मप्र की दो दलीय सियासत में तो यह कुछ ज्यादा ही प्रभावी है। इसके चलते राजनीति के जरिए समाज सेवा का जज्बा रखने वाले कई युवाओं व क्षेत्रीय दलों के सपने वक्त से पहले चकनाचूर हो गए। मप्र में वर्ष 2016 बैच की पूर्व राप्रसे अधिकारी निशा बांगरे इसकी एक और बानगी है। जिन्हें नूरा-कुश्ती वाली सियासत के कटु अनुभव से गुजरना पड़ा। नौकरी से तो हाथ धोया ही। वक्त ने कॅरियर में भी कई साल पीछे धकेल दिया गया। अब मुख्य प्रवक्ता का दायित्व मिला है लेकिन इसमें भी कई हर्डल्स हैं।
अनुभा का धर्मसंकट
बालाघाट से कांग्रेस विधायक अनुभा मुंजारे के पति कंकर मुंजारे दूसरी बार बसपा के टिकट पर बालाघाट में चुनाव मैदान में हैं। उनकी उम्मीदवारी ने सीट पर त्रिकोणीय मुकाबले के हालात तो बनाए ही,अनुभा के समक्ष भी धर्मसंकट पैदा कर दिया। इधर,कांग्रेस से टिकट की दावेदारी कर रहे कंकर ने पार्टी बदलते ही कांग्रेस की स्थिति का खुलासा कर दिया,कि कैसे एक पूर्व सांसद,तीन विधायकों व एक पूर्व विधायक ने सम्राट सरस्वार का टिकट कटवाने में रात-दिन एक किए। यानी बालाघाट कांग्रेस में भी गुटबाजी कम नहीं।
कलेक्टर की अनोखी पहल
सरकारी नौकरी तो लाखों लोग कर रहे हैं..लेकिन कुछ दिल से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर नई लकीर खींचने का काम करते हैं। ऐसे ही हैं बालाघाट जिले के कलेक्टर डा. गिरीश कुमार मिश्रा। बतौर जिला निर्वाचन अधिकारी डॉ मिश्रा बुजुर्ग मतदाताओं के पैर धुलाकर व पीले चावल देकर उन्हें मतदान का न्यौता दे रहे हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में पोस्टल मतपत्रों की गिनती को लेकर एक कर्मचारी की जल्दबाजी से बालाघाट प्रशासन की काफी किरकिरी हुई थी। इसके बाद मिश्रा कांग्रेस के निशाने पर भी आ गए थे। वेटरनरी डॉक्टर रहे मिश्रा पहले भारतीय वन सेवा और इसके बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में आए। वह वर्ष 2013 बैच के आईएएस हैं। मप्र से पारिवारिक रिश्ता बना तो वर्ष 2015 में बिहार कैडर छोड़ मप्र आ गए। ढाई साल पहले बालाघाट में बतौर कलेक्टर पदस्थापना पाई। उन्हें कविताएं लिखने का भी शौक है।
इस दिशा में भी हो पहल
भूख की व्याकुलता किसी भी प्राणी को हिंसक बना सकती है। भूख,स्ट्रीट डॉग्स के बदलते स्वभाव की एक बड़ी वजह कही जा सकती है।कारण कई हैं। पक्की होती गलियां,सड़कें,स्वच्छता कार्यक्रम व इससे बढ़कर हमारा बर्ताव।घर में पहली रोटी गाय व कुत्ते के लिए,यह परंपरा भी अब बीते दिनों की बात हो गई है। भोपाल की ही बात करें तो पुराने शहर की तुलना में नए शहर में ये घटनाएं ज्यादा हैं। ग्रामीण इलाकों में तो नहीं के बराबर। नसबंदी से स्ट्रीट डॉग्स की आबादी पर अंकुश लगाया जा सकता है,उनकी भूख पर नहीं। समस्या से निपटने साझा प्रयास व जनजागरूकता जरूरी है।